डर के साए में जिंदगी!
डर तो डर है,जो डर गया समझो मर गया ! फिल्म शोले का यह मशहूर डायलॉग काफी कुछ कहता है।जिंदगी की बुनियाद डर और खौफ के साए में हो तो उस पर बनने वाली इमारत एक डरावनी हवेली की तरह बन जाती है। सत्य अहिंसा और समानता जीवन से कब दूर चली जाती है इसका पता ही नहीं चलता है। पहले होता है कुछ- कुछ और फिर हो जाता है सब कुछ।
जुल्म,अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उठने वाली आवाजें कमजोर पड़ जाती हैं।जिन युवाओ ने सोचा था कि पढ़ लिखकर रूढ़िवादिता और भटकाववाद को समाप्त करेंगे, वह कब भटकाव की भट्टी में अपने आप को झोंक देते है इसका पता ही नहीं चलता और जब इसका पता जब चलता है तो तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। पहले जुल्म, अन्याय और अत्याचार के मामले में इसलिए समझौता कर लेते हैं कि वह उनके परिवार के सदस्य है। फिर इसलिए समझौता कर लेते हैं कि वह उनकी जाति के है । फिर इसलिए झुक जाते हैं कि वह उनके संप्रदाय के है। और हद तो तब हो जाती है जब वह अन्याय और अत्याचार की अपनी अलग परिभाषा गढ़ लेते हैं । यह सब इतनी आसानी से हो जाता है कि वह जब समझते हैं तो सामने इतने शक्तिशाली लोग नजर आते हैं कि उनसे टक्कर लेना आसान नहीं होता । उनके दोस्त,सहपाठी उन्हें चुप रहने की सलाह देते हैं । और एक वक्त ऐसा आता है कि उनके दोस्त, सहपाठी उनसे किनारा कर लेते हैं। भय, डर ,खौफ की ऐसी बादशाहत है जिससे टक्कर लेना आसान काम नहीं है । पहले डर, अंदर आता है। फिर दूर से डराता है, फिर जगह-जगह पर डराता रहता है। लड़ाई - झगड़े का डर, मारपीट का डर ,पुलिस का डर, चोरों -बदमाशों का डर, इलाके के गुंडों का डर, सत्ता में बैठे सफेद पोशो का डर, और जालिम समाज का डर, मौत का डर ,आखिरकार ...............डर .............डर ................डर ..........और ये डर, इंसान को बना देता है एक जिंदा लाश ........आदमी तो है लेकिन डर ने उसे इंसान छोड़ा ही कहा है,,,,,,,,,, न सत्य है ,न अहिंसा है, न समानता है, न इंसाफ है, न सच बोलने की हिम्मत, और डर बन गया है बादशाह................लेखक : एस ऐ बेताब
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