" काहे आग मूतते हैं"! "आग मूतना" कला नहीं कैरेक्टर की पराकाष्ठा है। कमाल ये है कि मूतने वाले को भी आग नजर नही आती और भुक्त भोगी चिल्लाता फिरता है- ' जल गया - जल गया मेरे दिल का जहां !' तो,,,,, पता ये चला कि आग मूतने से दरअसल जलता क्या है! वैसे, सत्य वचन बोले तो,,, मैंने आज तक किसी को आग मूतते नहीं देखा- अलबत्ता सुना बहुत है। बचपन में मेरे सगे चच्चा अक्सर मुझे धमकाते हुए कहते थे- ' बहुत आग मूत रहे हो, आने दो भइया को !' गांव में अक्सर शरारती बच्चे को ये सुनना पड़ता था! पहली बार जब मुझे अपनी इस खासियत का पता चला तो घबरा गया ! सोचने लगा, ' पेट में इतनी आग लेकर घूम रहा हूं, तेरा क्या होगा भारती '! ( बाद में आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ !) लेकिन शहर आकर पता चला कि आग मूतने का उम्र से कोई लेना देना नही है!. इस कला में कई दीर्घायु वालों ने नार्मल आग मूतने वालों को मीलों पीछे छोड़ रखा है! गौरवशाली वर्तमान देखता हूं तो आग मूतने के मामले में कुछ महापुरुषों का स्टेमिना देख कर दंग रह जाता हूं। कुछ बुद्धिजीवी प्राणियों ने तो सोशल मीडि
मैंने क्या पाया है दुनिया से कभी सोचा नहीं ।सोचता ये हूं कि मैं दुनिया को क्या दे जाऊंगा।। एस ए बेताब संपादक "बेताब समाचार एक्सप्रेस" हिंदी मासिक पत्रिका एवं यू टयूब चैनल