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अगस्त, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

काहे आग मूतते हैं

" काहे आग मूतते हैं"!              "आग मूतना"  कला नहीं कैरेक्टर की पराकाष्ठा है। कमाल ये है कि मूतने वाले को भी आग नजर नही आती और भुक्त भोगी चिल्लाता फिरता है- ' जल गया - जल गया मेरे दिल का जहां !' तो,,,,, पता ये चला कि आग मूतने से दरअसल जलता क्या है! वैसे, सत्य वचन बोले तो,,, मैंने आज तक किसी को आग मूतते नहीं देखा- अलबत्ता सुना बहुत है। बचपन में मेरे सगे चच्चा अक्सर मुझे धमकाते हुए कहते थे- ' बहुत आग मूत रहे हो, आने दो भइया को !'          गांव में अक्सर शरारती बच्चे को ये सुनना पड़ता था! पहली बार जब मुझे अपनी इस खासियत का पता चला तो घबरा गया ! सोचने लगा, ' पेट में इतनी आग लेकर घूम रहा हूं, तेरा क्या होगा भारती '! ( बाद में आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ !) लेकिन शहर आकर पता चला कि आग मूतने का उम्र से कोई लेना देना नही है!. इस कला में कई दीर्घायु वालों ने नार्मल आग मूतने वालों को मीलों पीछे छोड़ रखा है!      गौरवशाली वर्तमान देखता हूं तो आग मूतने के मामले में कुछ महापुरुषों का स्टेमिना देख कर दंग रह जाता हूं। कुछ बुद्धिजीवी प्राणियों ने तो सोशल मीडि

अपने गांव का कच्चा घर बेच डाला

गज़ल पहचान का पुराना पत्थर बेच डाला, अपने गांव का कच्चा घर बेच डाला। घर के अन्दर कभी दौलत नहीं आई, बेशक खुशी का हर मंज़र बेच डाला। सच बोलने में उसको पसीने आ गए, जो कहता था मन का डर बेच डाला। ख़ुदा से गिला शिकवा भी क्या करूं, मेरे अपनों ने मेरा मुक़द्दर बेच डाला। बच्चों को मुस्कान देने की जुस्तजू में, मैंने ख़्वाबों का सारा गट्ठर बेच डाला। लहरा रहे हैं हर तरफ झूठ के परचम, नेताओं ने सच का लश्कर बेच डाला। ऐ अरमानों कहीं और जाकर ठहरिए, ज़फ़र' ने तमन्ना का छप्पर बेच डाला। -ज़फ़रुद्दीन "ज़फ़र" एफ-413, कड़कड़डूमा कोर्ट, दिल्ली-32

दिल्ली बंद, मेरा कसूर ?

 उस दिन दिल्ली बंद थी, व्यापारियों की यूनियन के नेताओं की ओर से सीलिंग के विरोध में बंद का आयोजन किया गया था। जब भी बंद होता है तो अनेक लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है । खासतौर पर उन लोगों की चिंता ज्यादा बढ़ जाती है जो रोजाना का खाना - कमाना करते हैं। एक तो बढ़ती महंगाई दूसरे ये आए दिन दिल्ली में बंद का आयोजन । इस महंगाई ने तोउ मोहम्मद हाशिम की कमर ही तोड़ कर रख दी। दिन- रात मेहनत करके भी ₹200 ही कमा पाता था ₹14 किलो आटा ₹50 किलो दाल ₹20 किलो दूध और ₹22 किलो चीनी ने तो घर का सारा बजट ही  गड़बड़ा दिया । बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने का सपना तो शायद सपना ही बनकर रह जाए यह सारे ख्याल जब भी हाशिम के मन में आते तो सर चकरा जाता। और ऐसा लगता जैसे किसी ने ऊपर मनो बोझ रख दिया हो। जिंदगी की गाड़ी को बड़ी हिम्मत और हौसले के साथ में खींचे जा रहा था। वह जितनी हिम्मत करता सफर की दूरी उतनी ही आगे बढ़ती नजर आती। आए भी क्यों ना ,उसकी कोई बंधी बंधाई तनख्वा तो थी नहीं। वह तो अपनी मेहनत से दिन रात में जितना भी रिक्शा खींच लेता उतना ही कमा लेता। पिछले 5 वर्ष पहले जब वह अपने गांव से आया

बदनाम है हम

 सारे जमाने में बदनाम है हम    सरे बाजार खड़े हैं बे दाम है  हाथों में हमारे जादू है  फिर भी बे काम है हम नहीं चलता बिन हमारे काम यहां  फिर भी रुसवाईयों के नाम है हम गफलत ने  हमारी बर्बाद किया है  सीखी नहीं सियासत नाकाम है हम किससे कहें कैसे कहें अपनी दास्तां  कोई नहीं अपना बेलगाम है हम कल भी सूरज गुजरेगा इन सेहराओ से  अंधियारो मत रोको , नूर की शाम है हम  लेखक  - एस ए बेताब  

मुझको इंसाफ दिला दो

  तीन दिन से भूखी एक मां  बच्चे तड़प - तड़प कर रो लेते  कभी पानी में रोटी, कभी रोटी में पानी  कभी सो लेते, कभी आंखें भिगो लेते  यही सोच कर रह जाती अबला नारी   के वक्त ने बनाया मुझे भिखारी  गोदामों में अनाज सड़ता है  यहां गरीब की कौन सुनता है  बच्चों की भूख देखी नहीं जाती  अंधियारा दूर करूं,  कहां से लाएं तेल बाती  जीवन होता है बड़ा प्यारा  कौन बनेगा बच्चों का सहारा  जीवन का दीप बुझा दूं  सरकार तक खबर पहुंचा दूं  यही सोच कर रह जाती हूं  अंदर ही अंदर घुट जाती हूँ  लगता है मर कर भी जाऊंगी  मगर डरपोक कहलाउंगी काम लगता नहीं, उधार मिलता  नहीं कैसे कटेगी जिंदगानी  उनका पसीना भी खून  हमारा खून भी पानी  अजब है दुनिया का दस्तूर  कोई तो बताए मेरा कसूर  कई दिनों से पड़ा है  मेरा छप्पर उठवा दो  मुझको इंसाफ दिला दो  मुझको सूली पर चढ़ा दो  लेखक-  एस ए बेताब 

चलो इश्क लड़ाएं!

मेरी मानसिक स्थिति पर शंका न करें ! मैं भी जानता हूं कि लड़ाई झगडे में कुछ नहीं रखा है ! मैं तो ये  भी जानता हूं कि इश्क कोई तीतर, बटेर या मुर्गा भी नहीं है कि जिसे लड़ाया जा सके ! वैसे मैं नेता भी नहीं हूं जो इश्क को लड़ाई झगडे में खींचू ! इश्क को कैसे लड़ाया जाता है, मुझे तो अभी ठीक ठीक पता भी नहीं है! राहत इंदौरी कहते थे कि ७० साल के बाद आदमी इश्क  के लायक होता है! ( क्योंकि इस उम्र में इश्क के अलावाऔर कुछ होता भी नहीं !)    तो,,, मै १२ साल पहले क्या करूं?      मेरा दुर्भाग्य देखिए, मै फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं, मुझसे नीचे ग्राउंड फ्लोर पे एक युवा कवि आया है! कवि की बीवी गांव गई है , और युवा कवि ने तीन दिन से नींद उड़ा रखी है! कोरोना काल में मंच मुक्त चल रहा कवि रात में घातक हो जाता है ! कल दिन भर अलाप लगाता रहा,  " चलो इश्क लड़ाएं ! चलो इश्क लड़ाएं,,,"! मुहल्ले वालों के कान खड़े हो गए ! युवा पत्नियों वाले  पति सावधान हो गए ! दो दिन शान्त रहने के बाद आज रात ठीक बारह बजे एक नए गीत के साथ कवि ने मेरी नींद उड़ा दी " अनामिका तू भी तरसे,,,,!"       मै घबरा गया , क्या क

यह कैसा परिवर्तन आया है मेरे गांव में

 मैं खो जाता हूं भूली बिसरी यादों में  तनहाई की उन प्यार भरी मुलाकातों में  मुझे याद आता है गांव का वह सपना  चौपाल पर लगी भीड़, जहां लगता था मजमा दादा की लाठी पकड़ कर उन्हें घर तक पहुंचाना  सुखिया की देखभाल,नरगिस को मरहम लगाना  मुझे याद आती है वह लहलाती  फसलें  मुझे याद आती है पंडित जी की पढ़ाई  मुझे याद आती है शिवाले की शंखनाद  मुझे याद आती है मौलवी साहब की अजान  मुझे याद आती है अमित - अकबर के झगड़े की दास्तान  जहां खिचती  थी रोज कमान  कुश्ती में होती थी दोनों की टक्कर  कबड्डी में चकमा देने का चलता था चक्कर  पंडित,मौलवी दोनों बैठते थे साथ  घंटो करते थे प्यार भरी बात  सद्भाव की है एक अजब की मिसाल  सुखमय, वातावरण सारा गांव था खुशहाल  जब होती थी बरगद के पेड़ की छांव  वहां आ जाता था आधा गांव  झोपड़ी में लगी आग बुझाने आते थे सभी पड़ोसी  रहमान की बेटी होती थी राम की पोती  यह कैसा बदलाव आया है मेरे गांव में  अमरीका का सामान आया है मेरे गांव में  बरगद के पेड़ की डाली सूख गई  शर्म ओ हया  की लाली सूख गई  शर्मीली दुल्हन अर्धनग्न नज़र आती है  मौसम से पहले फसल पक जाती है  बिन बरसात के होती है यहां

जाने कहां गए वो दिन

मै हंसने की बात कर रहा हूं! हंसी जैसे कुंभ के मेले में खो गई है, नौकरी की तरह !वो दिन कितने आत्मनिर्भर थे जब हम हस लेते थे ।  जाने कहां गए वो दिन, माने,,, गॉन द अच्छे दिन ! हंसी जैसे गले से बाहर आते आते पेट में गिर गई और रोटी की जगह काम आ गईं । भूख हंसी को खा गई !        रोटी बड़ी खतरनाक चीज़ होती है। रोटी वामपंथियों के लिए ऑक्सीजन है और पूंजीवाद के लिए बारुद ।क्रान्ति के पीछे रोटी की बहुत बड़ी भूमिका होती है ।लेनिन ने भी स्वीकार किया है कि गरीब के बच्चे को वक्त पर रोटी मिलती रहे तो वो वक्त से पहले जवान हो जाता है !( शायद आटे की तरह पिसने के लिए!)           इसलिए पूंजीवाद व्यवस्था संचालन का मानना है कि सर्वहारा समाज जब रोटी मांगे तो उसे  "नारा" देना चाहिए। जब वो नारा को रोटी समझ कर निगलने लगेगा तो कभी क्रान्ति की तरफ नहीं जायेगा ! और,,,,एक दिन उसे नारे मेें ही रोटी की लज्ज़त मिलने लगेगी ! बस समझलो कि भूख खत्म आत्मनिर्भरता चालू !        मगर मेरी समस्या रोटी की नहीं, हंसी ना आने की है! आजकल बिलकुल नहीं हंस पास रहा हूं। सारे तरीके आजमा लिए! यहां तक कि दोबारा न्यूज़ देखना भी शुरू

हिम्मत टूट जाती है

देख कर उसे हिम्मत टूट जाती है  सामने वो  मेरे जब भी आती है  प्यार कर बैठे ,उसे दिल दे बैठे  रूठ जाने से उसके नींद चली जाती है सोचता हूं सब कुछ कह दूंगा उससे  मगर बात वो दिल के दिल में रह जाती है लगता है शायद उसे भी मुझसे प्यार है  तभी तो मेरी बातों पे चुप रह जाती है  लबों पे खामोशी दिलों में है बंदिश  उसकी झुकी  नजरें सब कुछ कह जाती है   सावन मे जमकर बरसती है  जब घटा     बदन तो क्या रूह भी तस्कीन पा जाती है लेखक - एस ए बेताब 

फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा

 जु़ल्म पर जुल्म किए जा रहा है  सच को सच बताया जा रहा है  कब तक बच पाएगा  एक दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा मजबूरो बेबसों को हक़ दिलाया जा रहा है  सूनी आंखों में खुशी लाए जा रहा है  सोच ले नहीं ऐसा तू कर पाएगा  एक दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा बेईमानी के दौर में ईमानदारी निभा रहा है  बच्चों को आज भी सरकारी स्कूल में पढ़ा रहा है  डॉक्टर नहीं तू बना पाएगा  दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा  रिश्तेदारों को भी चटनी खिला रहा है  पेप्सी के दौर में शरबत पिला रहा है  मालदार नहीं तू बन पाएगा  एक दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा  खिदमत खल्क किए जा रहा है  अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारे जा रहा है  मुश्किल है नहीं संभल पाएगा  एक दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा डूबते हुए जहाज को बचाए जा रहा है  पुरानी दोस्ती को निभाए जा रहा है  सोच ले डूबते जहाज को नहीं बचा पाएगा  एक दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा टॉप स्कर्ट के दौर में सलवार कमीज पहना रहा है  शर्म ओ हया औरआबरू को बचाए जा रहा है  सोच ले तरक्की नहीं कर पाएगा  एक दिन फांसी के फंदे पर चढ़ जाएगा गुलामी के दौर में आजादी दिखा रहा है  वादा करके वादा निभाए जा रहा

सजा़ काट रहा हूं मैं

  सुबह और शाम को बांट रहा हूं मैं  तुमसे मिलने की सजा काट रहा हूं मैं सियासत दानों की चालों में पड़ा हूं जब से इंसान को इंसान से बांट रहा हूं मैं  कमजोर है हर तरफ से अपना मुकद्दर  पढ़ लिख कर भी धूल फांक रहा हूं मैं    धूल भरी आंधियों के मौसम में  घटाओ की छटा बांट रहा हूं मैं  कितना मुश्किल है दिल को समझाना  उसकी हरकतों पर डांट रहा हूं मैं मौसम की वादियों के फूलों की कसम  खरपत की डालियों को छांट रहा हूं मैं            लेखक - एस ए बेताब

मौहब्बत की फ़िज़ा

  आओ मोहब्बत की एक ऐसी फिजा़ बनाई जाए  जिसमें नफरत को बिल्कुल जड़ से मिटाया जाए  फरेब ,धोखा ,मक्कारी छोड़ दो यारो  जाति धर्म के बंधन तोड़ दो यारो   मिलकर बंजर भूमि में सिंचाई लगाई जाए  उबड़ खाबड़ भूमि भी समतल बनाई जाए खेल रहे हो जिसमें हर तरह के फूल  लहलाता ऐसा एक चमन बनाया जाए  तकरार किसमें नहीं होती है यारों  ये दुश्मनी तो बहुत छोटी है यारों  बुलडोजर मिलकर ऐसा भी चलाया जाए    जिसमें दीवार दुश्मनी की गिराई जाए  लेखक- एस ए बेताब    लेखक की यह कविता 2 नवंबर 2002 को दैनिक इंकलाब भारत में प्रकाशित हो चुकी है

बेकारों को काम दे दो

  https://youtu.be/ehb3Lphkyo8  कोई फांसी लगाकर मर जाता है     कोई सरकार से लड़ जाता है  देखी नहीं जाती ऐसी अय्यारी  यहां नस-नस में भरी है मक्कारी  भ्रष्टाचार को लगाम दे दो     किसानों को वाजिब दाम दे दो      हमारी सुबह शाम दे दो      बेकारों को काम दे दो  डायर का नहीं राज चलेगा    बेईमानी का नहीं काज चलेगा     फरेबी से नहीं काम चलेगा      होठों पर नहीं जाम चलेगा       हमारी सुबह शाम दे दो        बेकारों को काम दे दो  भूख से नहीं अब कोई और मरेगा  कमजोरो का भी जो़र चलेगा    बेताजो को ताज दे दो    हमको यह राज दे दो     हमारी सुबह शाम दे दो      बेकारों को काम दे दो  राम रहीम का नाम ले लो  प्यार मोहब्बत से काम ले लो    बेकसों का साथ दे दो     बेकशो को हाथ दे दो      हमारी सुबह शाम दे दो      बेकारों को काम दे दो   सूफी हो या संत   सबको मिलेगा अन्न   राजा हो या रंक    सब रहेंगे एक संग     हमारी सुबह शाम दे दो     बेकारों को काम दे दो लेखक- एस ए बेताब 

किस्मत जब मेहरबान होती है तो सीधा-सादा मामूली सा एक लड़का बन जाता है हीरो,खेल की दुनिया से फिल्मी दुनिया तक का सफर अजहरुद्दीन ने कैसे किया पूरा

  कैसे एक नौजवान साइकिल से मर्सिडीज तक पहुंचा जिसे बचपन में फिल्म देखने की पाबंदी थी वह बन गया फिल्म हीरोइन का पति कैसे एक नौजवान साइकिल से मर्सिडीज तक पहुंचा। जिसे बचपन में फिल्म देखने की पाबंदी थी कैसे वह बन गया फिल्मी हीरोइन का पति  S A Betab एक छोटे से शहर के जिस लड़के को कभी घर से फिल्म देखने की इजाजत नहीं थी।एक  दिन इतनी ऊंचाइयों पर पहुंच जाता है कि वह एक फिल्मी हीरोइन का पति बन जाता है। जो अपनी दो बहनों को साइकिल पर एक को आगे एक को पीछे बैठा कर स्कूल छोड़कर समय से लौट आता है ताकि पिता साइकिल से समय से दफ्तर जा सके।वह व्यक्ति एक दिन इतना अमीर बन जाता है कि उस पर दौलत की ऐसी बारिश होती है उसके पास 450 टाइयो, तीन कारों (दो मर्सिडीज और एक होंडा )मुंबई में अपने बंगले, वर्षाची वह ब्रियानी के सूटों और धूप के चश्मों के भंडार( ओकले वर्षाची, रे बैन)का लुत्फ उठाता है। वह शख्स राजनीति की दुनिया में जब कदम रखता है और भारत की सबसे बड़ी पंचायत के लिए चुनाव मैदान में उतरता है तो जनता उसका स्वागत जीत से करती है। तब वह सांसद बनकर भारतीय संसद का  सदस्य बन जाता है। अपनी कप्तानी में 1998 में 39 टेस्

लुत्फ आने लगा

 देख कर उसे लुत्फ आने लगा  मेरा महबूब नजरें चुराने लगा  कशिश बढ़ती ही जाती है  आंखों में नशा सा छाने लगा  शबे स्याह में भी नूर सा चमकता है   चेहरा उसका ख्वाबों में नजर आने लगा  ओह,आह यह कैसी तस्कीन है  होठों से जाम कोई पिलाने लगा  छूने से ही बर्क़ सी  गिरती है  मेरा आशिक मुझे ही रुलाने लगा  जागता हूं मैं रात भर इसी सोच में  तसववुर में  भी अब दिल घबराने लगा लेखक- एस ए बेताब  संपादक- बेताब समाचार एक्सप्रेस  हिंदी मासिक पत्रिका एवं यू टयूब चैनल 

गज़ल(ज़फरुदीन ज़फ़र)

ग़ज़ल मरहम जो बिकता रहा ऊंचे भावों के साथ, मुझे सफ़र करना पड़ा गहरे घावों के साथ। मेरा पहला ही क़दम एक गड्ढे में चला गया, ज़िन्दगी तो शुरू की थी बड़े चावों के साथ। मेरे हिस्से में आया ना धूप के अलावा कुछ, इक सियासत जो हो गई थी छावों के साथ। सारे मौसम गुजरते चले गए बहारों के बग़ैर, मगर दिल अमेठता रहा मूंछें तावों के साथ। मेरे पास कुछ नहीं है यक़ीं दिलाने के लिए, भरोसा था वो उठ गया झूठे दावों के साथ। सारी सहूलियतें शहर के हिस्से में आ जुड़ीं, सौतेला बर्ताव हुआ है हमारे गांवों के साथ। अभी तूफ़ानी सफ़र और किनारा भी दूर है, छेड़-छाड़ मत करो सागर में नावों के साथ। जब भी मैंने अपनी हसरतों के घरोंदे बनाये, दौड़कर बरसात आ गई सारे धावों के साथ। 'ज़फ़र' मक़तल से मेरे दर्द की गूंज नहीं गई, मैं ही तो लौट आया हूं अपने पांवों के साथ। -ज़फ़रुद्दीन "ज़फ़र" एफ़ -413, कड़कड़डूमा कोर्ट, दिल्ली-32 zzafar08@gmail.com  

उसकी क्या मजाल है

  लेखक - एस ए बेताब  सभी के दिल का यही ख्याल है   चढ़ते सूरज का एक दिन जवाल है    जानते हुए भी  नहीं आता है बाज   क्या तुझे अपनी कजा़ का नहीं ख्याल है   हसीन ख्वाबों की ताबीर देना छोड़ दे  ये  जिंदगी की हकीकत का सवाल है  आंधियों के  गुरुर से क्या घबराना      पेट में जिसके रिज़्क ए हलाल है           मुलाकात आज तक ना हो सकी           उसके रूठ जाने का मलाल है

नसीरुद्दीन शाह एक ऐसा कलाकार जिसकी हर एक्टिंग में नजर आती है सत्यता

नसीरुद्दीन शाह एक कलाकार  एस ए बेताब         नसीरुद्दीन शाह कलाकार ही नहीं अदाकार भी है।  नहीं चाहिए वो दिल फेंक आशिक जो महबूबा का हाथ थाम ते ही अपने हथियार फेंक दे। अभिनय सम्राट दिलीप कुमार का यह डायलॉग फिल्म कर्मा में जब बोला गया तो सुनिए नसीरुद्दीन शाह ने क्या कहा था .. .  . ...... ...................आपको खूब अच्छी तरह याद होगा । मिर्जा गालिब में असद उल्लाह खां ग़ालिब का रोल हो या फिर फिल्म मोहरा में समाधान अखबार के एडिटर का वह रोल कौन भूल सकता है। "इस मदमस्त चेहरे ने मुझे दीवाना बना दिया  इन खूबसूरत होठों पर  अपने प्यार की मोहर लगाना चाहता हूं। "रोमा इस अंधे ने इस काले चश्मे के पीछे छिपी आंखों से तुम्हारे हुस्न को जिया है । और अनगिनत ऐसी यादें हैं  जो दर्शकों के  दिलो-दिमाग में रच- बस जाती हैं ।नसीरुद्दीन शाह, जिन्हें हिंदी फ़िल्म उद्योग में अदाकारी का एक पैमाना कहा जाए तो शायद ही किसी को एतराज हो। नसीर की काबिलियत का सबसे बड़ा सुबूत है, सिनेमा की दोनों धाराओं में उनकी कामयाबी। नसीर का नाम अगर पैरेलल सिनेमा के सबसे बेहतरीन अभिनेताओं की सूची में शामिल हुआ तो बॉलीवुड की मुख

अजीब लोग हैं

  लेखक - एस ए बेताब  क्या जमाना है क्या लोग हैं  अजीब दौर है अजीब लोग हैं अपने ही आंगन में पत्थर फेंकने वालों  दूसरे के गिरेबाँ में झांकने वालों  बाहर निकल कर भी देखो  एक ही लठ से हांकने वालो  ना डरने वालों को भी खौफ है  अजीब दौर है अजीब लोग हैं  आग उगलने वाला सूरज  बादलों से गिड़गिड़ा रहा है  कल तक जो अकड़ था था आज  अपने किए पर पछता रहा है लोगों के अपने - अपने शौक हैं  अजीब दौर है अजीब लोग हैं  जिंदगी भी एक कहानी है  चलती हुई रवानी है  मत देखो इन खूबसूरत हवाओं को  यह बहार तो आनी जानी है  दिलकश अदा दिलकश लोग हैं  अजीब दौर है अजीब लोग हैं

डर लगता है

    लेखक  - एस ए बेताब    उसके खो जाने से डर लगता है  उसके रूठ जाने से डर लगता है हे बहारो जरा ठहर जाओ  पतझड़ आने से डर लगता है बादलों से इस कदर बरसा पानी  बादलों के आने से डर लगता है  लबो पर आई है शिद्दत की प्यास  होठों पे गिलास लगाने से डर लगता है मेरे महबूब ये कैसी चांदनी है  अंधेरों के आने से डर लगता है

क्या 73 साल बाद भी हमें आर्थिक आजादी मिल पाई ?

 स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त हर साल आता है, कुछ  आयोजन होते हैं ,लाल किले पर प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं और भाषण देते हैं। हमारे न्यूज़ चैनल स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम की कुछ झलकियां दिखाते हैं, कुछ  बहस - मुबाहिसो के बाद कार्यक्रम समाप्त हो जाता है। जिस स्वतंत्रता के लिए लाखों लोगों ने आंदोलन किया , जेल गए ,फांसी के फंदे पर झूले । ब्रिटिश साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा दी ताकि हम आजादी से जी सकें। गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारतीय समाज को आजादी की खुली हवा में जीने का हक हो, सामंतवाद, पूंजीवाद  और तानाशाही से छुटकारा मिल सके। जो ख्वाब सजाए गए थे क्या आज उन ख्वाबों को पूरा किया जा रहा है ?  इस प्रश्न का उत्तर आज भी गौण है। आजादी का मतलब यह नहीं होता कि गोरे अंग्रेज से छुटकारा मिल गया और काले अंग्रेज आ गए । क्या देश के संसाधनों पर आज भी पूंजीपतियों का कब्जा नहीं  है। आजादी तो मिली लेकिन आर्थिक आजादी आज भी नहीं मिली है। देश की संपत्ति पर 1% लोगों का कब्जा है ,लोग दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं । उनके लिए रोटी के लाले पड़े हुए हैं। प्रवासी मजदूरों के लिए बसें थी, न रेल थी, किसी मानव

गुजरात से खरीद कर लाया गया विमान मेरठ में बन रहा है लोगों की आकर्षण का केंद्र तो ड्राइवरों के लिए बन गया है मुसीबत

 मेरठ में एक व्यापारी गुजरात से पुराना विमान का कबाड़ा खरीद कर लाया है । जिसके दो पैनल एक ट्रक  पर लादकर लाए गए हैं जो मेरठ के परतापुर ग्रैंड टोयोटा शोरूम के सामने खड़े हैं । दूसरा ट्रक विमान का मेन हिस्सा लेकर आया है जो मेरठ बाईपास पर डाबका गांव के पास खड़ा है। ट्रक का ड्राइवर बहुत परेशान है। दोनों ट्रक ड्राइवरों से हमने बात की तो उनका यह कहना था कि एक-दो दिन को कहकर और खरीद कर लाने वाला मालिक 15 दिन से नहीं आया है। जिस कारण उनके सामने खाने-पीने का संकट  पैदा हो गया है। इसके अलावा एक और नई मुसीबत इस मलबे की रखवाली करना अपने ट्रक की रखवाली करना भी चुनौती बना हुआ है। कोई इसका  पुर्जा निकालकर ना ले जाए।  कोई सामान ना निकाल कर ले जाए । और इस तरह से रखवाली करनी पड़ रही है। दूसरे आसपास के लोगों के लिए यह एक टूरिस्ट स्पॉट बन रहा है । लोग विमान और ट्रक को देखने आ रहे हैं, कि विमान कितना बड़ा है, कैसा विमान है ,और विमान के दोनों पैनल को देखने के लिए रोजाना बहुत सारे लोग आते हैं। एक ट्रक ड्राइवर  जो पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं जिनका नाम है बाकी बिल्लाह ने हमें बताया कि 15 दिन हो गए ट्रक को खड

दुनिया के दिग्गज शायर राहत इंदौरी का निधन

  दुनिया के जाने माने शायर राहत इंदौरी का निधन हो गया है।  राहत इंदौरी साहब का जन्म 1950 में हुआ था। उर्दू अदब के लिए यह एक बहुत बड़ा सदमा है उनकी मौत की खबर से  लोग सकते में हैं। पत्नी शायरी के माध्यम से राहत इंदौरी साहब ने समाज में व्याप्त बेचैनी को  लोगों के सामने रखा और यही सत्यता और प्रखरता उनकी विशेषता थी कि वह लोगों के दिलों पर राज करते थे । अल्लाह ताला से दुआ है कि अल्लाह ताला उनकी मगफिरत फरमाए और उन्हें जन्नत में आला से आला मक़ाम अता फरमाए ।आमीन -सुम्मा आमीन  "बेताब समाचार एक्सप्रेस" हिंदी मासिक पत्रिका परिवार  उनके लिए दुआ ए मगफिरत करता है।

सरधना का एक मोहल्ला ऐसा भी है जहां कैंसर के कारण अब तक 24 से अधिक लोगों की हो चुकी है मौत

  सरधना (मेरठ) का एक ऐसा मौहल्ला जहां 24 से अधिक लोग अब तक कैंसर से मर चुके हैं, क्या स्वास्थ्य विभाग वजह तलाशने की कोशिश करेगा ?    एस ए बेताब  जिंदगी कितनी अनमोल है इसका एहसास तब होता है जब आपका कोई साथी जिंदगी छोड़ कर चला जाता है। जब से कोरोना महामारी आई है तब से मौत की दहशत ने  ऐसी दस्तक दी है कि हर शख्स खौफज़दा है।  एक अदृश्य दुश्मन कब हम पर हमला करता है और कब हम उसकी चपेट में आ जाते हैं पता ही नहीं चलता ।दुनिया में अभी तक बहुत सी बीमारियों का इलाज नहीं है जैसे कुत्ता काटने पर रेबीज़ होने के बाद कोई इलाज नहीं है। एड्स का कोई इलाज नहीं है ।कोरोना का कोई इलाज नहीं है। वैज्ञानिकों ने इन सब बीमारियों से बचाव के लिए कुछ चीजें बतायी है जिनसे इन बीमारियों से बचा जा सकता है हमें इन सब मामलों में एहतियात बरतना जरूरी है। इंसान के अमूल्य जीवन को बचाने के लिए सावधानी और सुरक्षा की जरूरत है। थोड़ी सी लापरवाही और असुरक्षा हमारे अमूल्य जीवन को छीन लेती है। कैंसर भी एक ऐसी ही घातक बीमारी है जो आहिस्ता - आहिस्ता जीवन को छीन लेती है । उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के सरधना कस्बे का एक मोहल्ला है बैरून