सुबह और शाम को बांट रहा हूं मैं
तुमसे मिलने की सजा काट रहा हूं मैं
सियासत दानों की चालों में पड़ा हूं जब से
इंसान को इंसान से बांट रहा हूं मैं
कमजोर है हर तरफ से अपना मुकद्दर
पढ़ लिख कर भी धूल फांक रहा हूं मैं
धूल भरी आंधियों के मौसम में
घटाओ की छटा बांट रहा हूं मैं
कितना मुश्किल है दिल को समझाना
उसकी हरकतों पर डांट रहा हूं मैं
मौसम की वादियों के फूलों की कसम
खरपत की डालियों को छांट रहा हूं मैं
लेखक - एस ए बेताब
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें