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जाने कहां गए वो दिन


मै हंसने की बात कर रहा हूं! हंसी जैसे कुंभ के मेले में खो गई है, नौकरी की तरह !वो दिन कितने आत्मनिर्भर थे जब हम हस लेते थे ।  जाने कहां गए वो दिन, माने,,, गॉन द अच्छे दिन ! हंसी जैसे गले से बाहर आते आते पेट में गिर गई और रोटी की जगह काम आ गईं । भूख हंसी को खा गई !
       रोटी बड़ी खतरनाक चीज़ होती है। रोटी वामपंथियों के लिए ऑक्सीजन है और पूंजीवाद के लिए बारुद ।क्रान्ति के पीछे रोटी की बहुत बड़ी भूमिका होती है ।लेनिन ने भी स्वीकार किया है कि गरीब के बच्चे को वक्त पर रोटी मिलती रहे तो वो वक्त से पहले जवान हो जाता है !( शायद आटे की तरह पिसने के लिए!) 
         इसलिए पूंजीवाद व्यवस्था संचालन का मानना है कि सर्वहारा समाज जब रोटी मांगे तो उसे  "नारा" देना चाहिए। जब वो नारा को रोटी समझ कर निगलने लगेगा तो कभी क्रान्ति की तरफ नहीं जायेगा ! और,,,,एक दिन उसे नारे मेें ही रोटी की लज्ज़त मिलने लगेगी ! बस समझलो कि भूख खत्म आत्मनिर्भरता चालू !
       मगर मेरी समस्या रोटी की नहीं, हंसी ना आने की है! आजकल बिलकुल नहीं हंस पास रहा हूं। सारे तरीके आजमा लिए! यहां तक कि दोबारा न्यूज़ देखना भी शुरू कर दिया, पर हंसी है आती नहीं। दिले नादान तुझे हुआ क्या है बे! बगैर रस्सी का सांड हुआ जाता है। कल यही सोचते हुए सोया तो नींद में लुटा पिटा दिल  सामने आ खड़ा हुआ ! मैंने पूछा, "कांग्रेस के विधायक की तरह कहां असंतुष्ट होकर घूम रहे हो! हंसते क्योें नहीं ?"
          दिल गुस्से में फट पड़ा," तू लेखक है या बिना पैंदी का लोटा ! तेरे इस कुपोषित शरीर में आकर रो रहा हूं! तेरे पास हंसने  लायक है क्या ?" मैंने जवाब दिया " क्योें नहीं, भगवान का दिया सबकुछ है, कागज है , कलम है, इज्ज़त है, शोहरत,,,,"!
     " बस बस" दिल बोल पड़ा, " बाकी क्या है मै बताता हूं, कुपोषित किस्मत है, इंफेक्शन की शिकार कुंडली है,बर्बादी के लिए जिम्मेदार खुद्दारी है और तरक्की के रास्ते  में स्पीड ब्रेकर बनी सच्चाई और ईमानदारी है! इसी आपदा की पोटली को लेकर तू इस कलियुग में हंसने का अवसर ढूंढ रहा है मूर्ख !"
      "शट अप"! मै चिल्लाया 
  "तुम शट अप!" कोई और चीखा ।
         मेरी आंख खुल गई, सामने मेरी बेगम खड़ी घूरती हुई बडबडा रही थीं " पांच महीने से घर में बैठे खाट तोड़ रहे हो , और जगाने पर अंग्रेजी में डांटते हो! आज का खाना तुम्हीं बनाओगे "!
        हसने की कौन कहे, अब तो रोना भी मुश्किल है। इस। दौर में वाकई हसना बहुत मुश्किल हो गया है। एक शेर मुलाहिजा हो _

या  तो  दीवाना हंसे  या तू  जिसे  तौफीक  दे!
वरना इस दुनिया में आ कर मुस्कुराता कौन है!!

 मेहमान लेखक : सुल्तान भारती

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