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दिल्ली बंद, मेरा कसूर ?


 उस दिन दिल्ली बंद थी, व्यापारियों की यूनियन के नेताओं की ओर से सीलिंग के विरोध में बंद का आयोजन किया गया था। जब भी बंद होता है तो अनेक लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है । खासतौर पर उन लोगों की चिंता ज्यादा बढ़ जाती है जो रोजाना का खाना - कमाना करते हैं। एक तो बढ़ती महंगाई दूसरे ये आए दिन दिल्ली में बंद का आयोजन । इस महंगाई ने तोउ मोहम्मद हाशिम की कमर ही तोड़ कर रख दी। दिन- रात मेहनत करके भी ₹200 ही कमा पाता था ₹14 किलो आटा ₹50 किलो दाल ₹20 किलो दूध और ₹22 किलो चीनी ने तो घर का सारा बजट ही  गड़बड़ा दिया । बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने का सपना तो शायद सपना ही बनकर रह जाए यह सारे ख्याल जब भी हाशिम के मन में आते तो सर चकरा जाता। और ऐसा लगता जैसे किसी ने ऊपर मनो बोझ रख दिया हो। जिंदगी की गाड़ी को बड़ी हिम्मत और हौसले के साथ में खींचे जा रहा था। वह जितनी हिम्मत करता सफर की दूरी उतनी ही आगे बढ़ती नजर आती। आए भी क्यों ना ,उसकी कोई बंधी बंधाई तनख्वा तो थी नहीं। वह तो अपनी मेहनत से दिन रात में जितना भी रिक्शा खींच लेता उतना ही कमा लेता। पिछले 5 वर्ष पहले जब वह अपने गांव से आया था तो किसी नौकरी की तलाश थी। काफी तलाश के बावजूद जब नौकरी नहीं मिली तो उसने किराए पर रिक्शा लेकर उसे चलाना ही प्रारंभ कर दिया। जब वह रिक्शा चलाता तो उसे लगता था कि  यह कोई मुश्किल काम नहीं है। शरीर की ताकत के सामने रिक्शा  आगे ही आगे दिखाई देता था। आज जब हाशिम रिक्शा को खींच रहा था तो उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे रिक्शा उल्टा उसे खींच रहा हो । पिछले 5 सालों में यह क्या से क्या हो गया । हालात को जितने संभालने की कोशिश की उतने ही बिखरते चले गए ।सुल्फा ,गांजा स्मैक,  शराब का भी तो आदी  नहीं हुआ, लेकिन फिर भी यह क्या हालात हो गए । पिछले 5 सालों का हिसाब भी उसे उंगलियों पर याद था। कोई बड़ी चीज भी तो नहीं खरीदी। 5 साल में 3 बच्चों का बाप जो बन गया था। दिल्ली के बारे में जो किस्से सुने थे कि कब किस्मत पलटी मार जाए। उसी किस्मत के बदलने के इंतजार में भी तो वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रहा था । दिल्ली शहर में रहकर बड़ा आदमी भी ना बन सका था तो बिहार के उस  बंधुआ मजदूर से अच्छा जीवन तो गुजर  ही जाए, जो दो वक्त की रोटी के लिए भी तरसते रहते हैं। वक्त कितनी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था कि दिन -हफ्ते और महीने गुजर गए। पता ही नहीं चला ।

सीलिंग के विरोध में दिल्ली बंद का आम जनता में ज्यादा ही विरोध था। जगह-जगह जाम लग रहे थे । तो प्रदर्शन और धरने भी चल रहे थे। 2 सवारियों को लेकर सीलमपुर रोड पहुंचा तो पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झडप  चल रही थी। 

"आखिर बंद करने से क्या फायदा, लोग परेशान होते हैं और नेता अपनी राजनीति चमकातेहै। रिक्शा में बैठी सवारी ने हाशिम से कहा

" बाबू जी ! इन नेताओं की बात अपनी समझ में नहीं आती और सरकार है कि महंगाई बढ़ती जा रही है। अब भला कम कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या? 

" यह सरकार तो बिल्कुल ही हाथ पर हाथ धरे बैठी है। अब भला खेल जरूरी है या लोगों का रोजगार जरूरी है ।कॉमनवेल्थ गेम के लिए दिल्ली के लाखों लोगों को उजाड़ना कहां की अकल बंदी है । 

बाबू जी यदि सरकार हमारे बिहार में खेल करा ले तो न तो लोगो को उजाड़ना  पड़ेगा और ना ही रोज-रोज का दिल्ली बंद करना पड़ेगा ।

"अरे भाई ! सरकार में बैठे नेता जब विदेशों से करोड़ों रुपए ले लेते हैं  तो फिर उन्हें किसी अमीर की चिंता है ना गरीब के उजड़ने का दुख । पहले देश अंग्रेजों का गुलाम था अब अंग्रेजों के गुलामो का गुलाम का है । अंग्रेजों को तो भगा दिया लेकिन अंग्रेजी मानसिकता तो आज तक नहीं गई।

" बाबूजी ! बंद रहे या दिल्ली खुले हमें तो काम करना ही पड़ेगा, काम नहीं करेंगे तो फिर खाएंगे कहां से।  आज सुबह सोनू की अम्मी मुझे काम पर आने नहीं दे रही थी कि ऐसे झगड़े में काम पर मत जाओ । बताओ बाबू जी हमारी किसी से कोई दुश्मनी तो है नहीं।  हम तो आप लोगों की सेवा ही कर रहे हैं । 

"अरे भाई!  सेवा तो कर रहे हैं फिर भी झगड़े का माहौल बनते कुछ देर नहीं लगती। पता नहीं आजकल हमारे शहरों के मिजाज को क्या हो गया है, पता नही चलता है अभी तो सब कुछ ठीक-ठाक था थोड़ी देर बाद में ही 2-4 मर जाते हैं और कर्फ्यू लगा मिलता है ।अच्छा भाई ये लो ₹5 मुझे तो यही उतार दो । मैं तो यहीं से पैदल निकल जाऊंगा।

" ठीक है बाबूजी! 

और हाशिम ने रिक्शा से सवारी को उतारा और फिर सवारी की तलाश में आगे बढ़ गया। आगे रोड पर शोर कुछ ज्यादा ही होने लगा और कुछ आगे बढ़ता तो वहां पुलिस ही पुलिस दिखाई दे रही थी। हाशिम ने रिक्शा को एक साइड में कर लिया । तभी एक गोली सांय -सांय करती हुई आई और हाशिम के भेजे को चीर गई । गोलियों की अंधाधुंध  बारिश और पत्थरों की बारिश और एक उठता हुआ शोर।इस  शोर में हाशिम की आवाज दब कर रह गई। अब उसे तमाम बातें याद आ रही थी कि बंद में घर से क्यों नहीं निकलना चाहिए।

 लेखक -एस ए  बेताब 

(लेखक की यह कहानी 2006 में "बेताब समाचार एक्सप्रेस" हिंदी मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी)

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