ग़ज़ल
मरहम जो बिकता रहा ऊंचे भावों के साथ,
मुझे सफ़र करना पड़ा गहरे घावों के साथ।
मेरा पहला ही क़दम एक गड्ढे में चला गया,
ज़िन्दगी तो शुरू की थी बड़े चावों के साथ।
मेरे हिस्से में आया ना धूप के अलावा कुछ,
इक सियासत जो हो गई थी छावों के साथ।
सारे मौसम गुजरते चले गए बहारों के बग़ैर,
मगर दिल अमेठता रहा मूंछें तावों के साथ।
मेरे पास कुछ नहीं है यक़ीं दिलाने के लिए,
भरोसा था वो उठ गया झूठे दावों के साथ।
सारी सहूलियतें शहर के हिस्से में आ जुड़ीं,
सौतेला बर्ताव हुआ है हमारे गांवों के साथ।
अभी तूफ़ानी सफ़र और किनारा भी दूर है,
छेड़-छाड़ मत करो सागर में नावों के साथ।
जब भी मैंने अपनी हसरतों के घरोंदे बनाये,
दौड़कर बरसात आ गई सारे धावों के साथ।
'ज़फ़र' मक़तल से मेरे दर्द की गूंज नहीं गई,
मैं ही तो लौट आया हूं अपने पांवों के साथ।
-ज़फ़रुद्दीन "ज़फ़र"
एफ़ -413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
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