गज़ल
पहचान का पुराना पत्थर बेच डाला,
अपने गांव का कच्चा घर बेच डाला।
घर के अन्दर कभी दौलत नहीं आई,
बेशक खुशी का हर मंज़र बेच डाला।
सच बोलने में उसको पसीने आ गए,
जो कहता था मन का डर बेच डाला।
ख़ुदा से गिला शिकवा भी क्या करूं,
मेरे अपनों ने मेरा मुक़द्दर बेच डाला।
बच्चों को मुस्कान देने की जुस्तजू में,
मैंने ख़्वाबों का सारा गट्ठर बेच डाला।
लहरा रहे हैं हर तरफ झूठ के परचम,
नेताओं ने सच का लश्कर बेच डाला।
ऐ अरमानों कहीं और जाकर ठहरिए,
ज़फ़र' ने तमन्ना का छप्पर बेच डाला।
-ज़फ़रुद्दीन "ज़फ़र"
एफ-413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली-32
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