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मुस्लिम समाज की अपनी पार्टी बनाने के प्रयोग

 देश के मुसलमानों द्वारा अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के अब तक एक दर्जन से अधिक प्रयोग किए गए. जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश के विभिन्न राज्यों में किए गए ये प्रयोग संख्या बढ़ाने के लिहाज से सफल तो दिखते हैं, परंतु वे इतने सीमित हैं कि उनकी बुनियाद पर तेलंगाना की स्थापना की घोषणा के बाद 29 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में फैली कुल 13.4 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या के परिपेक्ष्य में उनका विश्‍लेषण बहुत कठिन हो जाता है. एक अनुमान के अनुसार, इन एक दर्जन मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों द्वारा 1952 में हुए पहले संसदीय चुनाव से लेकर आज तक कमोबेश एक दर्जन से अधिक मुस्लिम प्रतिनिधि लोकसभा में भेजे जा चुके हैं. इसी प्रकार विभिन्न मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों के 200 प्रतिनिधि विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं एवं विधान परिषदों में पहुंच चुके हैं. इनमें इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सदस्यों की संख्या 75 प्रतिशत से ज़्यादा है. मुस्लिम लीग के इन सदस्यों का संबंध केरल, तमिलनाडु एवं पश्‍चिम बंगाल जैसे राज्यों की विधानसभाओं से रहा है. अन्य मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों के लोग केवल आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं असम की विधानसभाओं में ही अपना जलवा दिखा सके. इन राज्यों से मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों के केवल पांच सदस्य पिछले 66 सालों में लोकसभा पहुंचे और इनमें से उत्तर प्रदेश से मुस्लिम मजलिस के हाजी जुल्फिकार उल्लाह केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री रहे. मुस्लिम लीग के भी ई अहमद केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री रहे और इस समय वह केंद्रीय रेल राज्यमंत्री हैं. मुस्लिम लीग के सदस्य केरल के अलावा उत्तर प्रदेश में भी सरकार में शमिल रहे. बड़ी बात तो यह है कि केरल में 1979 में इसके अहम नेता सी एच मोहम्मद कोया मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.

इन जानकारियों से कुछ सकारात्मक पहलुओं के साथ-साथ यह कटु सत्य भी सामने आता है कि पिछले 66 सालों में विभिन्न मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों से केंद्र सरकार को मात्र दो मुस्लिम मंत्री, एक दर्जन से अधिक मुस्लिम सांसद एवं कुछ राज्यों की विधानसभाओं को 200 मुस्लिम सदस्य मिल सके हैं. इसलिए यह प्रश्‍न स्वाभाविक है कि इतने सीमित प्रभाव के साथ मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों की क्या वाकई कोई आवश्यकता है? स्वाधीनता के बाद से अब तक की राजनीतिक स्थिति का विश्‍लेषण करने पर अंदाजा होता है कि देश विभाजन के बाद उस समय मुसलमानों के कायदे आजम कहे जाने मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग पाकिस्तान लेकर वहां चली गई. भारत में उससे जुड़े लोगों ने अपने संबंध समाप्त करते हुए यहां बचे लोगों को लेकर इंडियन यूनियन मुुस्लिम लीग को जन्म दिया.
इनमें मद्रास के कायदे मिल्लत हाजी मुहम्मद इस्माइल अग्रणी थे. उन्होंने ऐसे लोगों की बैठक मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में 10 मार्च, 1948 को करके इसकी स्थापना की. मजे की बात तो यह है कि इससे पूर्व 1947 के अंत में कायदे मिल्लत पाकिस्तान जाकर जिन्ना से कह आए थे कि अब भारत में मुस्लिम लीग के बचे हुए लोगों का आपकी मुस्लिम लीग से कोई संबंध नहीं रह गया है. आपको हमारी चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, हम अपनी चिंता स्वयं कर लेंगे. कायदे मिल्लत के मुंह से यह खरी-खरी बात सुनकर कायदे आजम का चेहरा क्रोध से लाल हो गया था. यही कारण है कि इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग कायदे मिल्लत मुहम्मद इस्माइल के नेतृत्व में अस्तित्व में आई और वह स्वयं उसके पहले अध्यक्ष बने. उन्हें यह गौरव हासिल है कि वह भारतीय संविधान सभा के सदस्य रहे और पहली बार मद्रास से राज्यसभा में दाखिल हुए. इसके बाद लगातार तीन बार केरल से लोकसभा के लिए निर्वाचित होकर उन्होंने सदन की शोभा बढ़ाई. उन्हें एक अच्छे एवं योग्य सांसद के रूप में याद किया जाता है.
इसी प्रकार सी एच मुहम्मद कोया दो बार सांसद रहे. 29 वर्ष की आयु में केरल मुस्लिम लीग लेजिस्लेचर पार्टी के नेता बनने के बाद वह 12 अक्टूबर, 1979 को केरल के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे. उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग को 1952 के प्रथम चुनाव में जिला मालाबार, जो उस समय मद्रास सूबे का हिस्सा था, में पांच विधानसभा सीटों पर सफलता मिली और लोकसभा के लिए भी उसका एक उम्मीदवार निर्वाचित हुआ. उस समय मद्रास विधानसभा में असल चुनावी लड़ाई कांग्रेस एवं वामदलों के बीच थी. जब नतीजे सामने आए, तो किसी को बहुमत न मिलने के कारण त्रिशंकु विधानसभा बन गई. ऐसे में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं स्वाधीनता संग्राम सेनानी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने मुस्लिम लीग के पांच विधायकों के सहयोग से मद्रास सूबे में सरकार बनाई एवं मुख्यमंत्री बने. यह निश्‍चय ही मानने वाली बात नहीं थी कि जिस मुस्लिम लीग से कांग्रेस के आपसी मतभेद के कारण देश का विभाजन हुआ था, उसी मुस्लिम लीग के दोबारा गठन के बाद उससे सहयोग लेकर सरकार बनाई गई. ग़ौरतलब है कि मुस्लिम लीग का 1952 से लेकर 2009 तक सदैव प्रतिनिधित्व रहा है. इस समय इसके लोकसभा में तीन सदस्य मल्लापुरम (केरल) से ई अहमद, पोनानी (केरल) से ई टी मुहम्मद बशीर एवं वेल्लौर (तमिलनाडु) से एम अब्दुल रहमान हैं, जबकि राज्य विधानसभा के 2011 में हुए 13वें चुनाव में 20 सदस्य निर्वाचित होकर आए हैं. इससे पूर्व 1956 में नवगठित केरल राज्य में मालाबार जिले के सम्मिलित हो जाने के बाद राज्य की प्रथम विधानसभा (1957-59) से लेकर बारहवीं विधानसभा (2006-11) तक कुल 158 सदस्य मौजूद रहे हैं.
शुरुआत में केरल के बाहर तमिलनाडु एवं पश्‍चिम बंगाल में भी इसके लोग राज्यसभा एवं लोकसभा में गए. 1967 में चौथी लोकसभा में रामनाथपुरम (तमिलनाडु) से मदुरई शरीफ साहब के नाम से मशहूर एस एम मुहम्मद शरीफ तमिलनाडु से मुस्लिम लीग के पहले सदस्य थे. वह पांचवी लोकसभा के लिए 1972 के संसदीय चुनाव में भी निर्वाचित हुए. इसी प्रकार पश्‍चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद में 1972 में अबू तालिब चौधरी ने लोकसभा चुनाव जीतकर वहां मुस्लिम लीग का झंडा फहराया. राज्यसभा में मुस्लिम लीग का कई बार प्रतिनिधित्व रहा है. कायदे मिल्लत मुहम्मद इस्माइल के बाद इंडियन मुस्लिम लीग के सर्वाधिक विख्यात नेता कर्नाटक-केरल के इब्राहिम सुलेमान सेठ एवं गुजरात-महाराष्ट्र के गुलाम महमूद बनातवाला हैं. इन दोनों नेताओं ने मुस्लिम लीग की अध्यक्षता भी की और कई बार सांसद रहे. संसद के इतिहास में इनके नाम बेहतरीन सांसदों की सूची में शामिल किए जाते हैं.
उत्तर प्रदेश में 1968 में प्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर अब्दुल जलील फरीदी द्वारा स्थापित मुस्लिम मजलिस के भी तीन नेता 1977 में मुहम्मद जुल्फिकार उल्लाह (सुल्तानपुर) एवं बशीर अहमद (फतेहपुर) और 1980 में ए यू आजमी जौनपुर से लोकसभा पहुंचे. साथ ही 18 प्रतिनिधि 1969 से लेकर 1989 तक राज्य विधानसभा में आए. 1977 में राम नरेश यादव के नेतृत्व में बनी गठबंधन सरकार में मुस्लिम मजलिस के मुहम्मद मसूद खां पीडब्ल्यूडी मंत्री बने. 1977 ही में मुहम्मद हबीब अहमद का नाम गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर लिया गया, मगर ऐसा संभव नहीं हो सका.
आंध्र प्रदेश में ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलेमीन के दो नेता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी एवं उनके पुत्र असदुद्दीन ओवैसी ने 1984 से लगातार अब तक पार्टी का लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया है. लोकसभा में इन दोनों का प्रदर्शन अच्छा रहा है. इस पार्टी की आंध्र प्रदेश विधानसभा में 1962 से नुमाइंदगी रही है. दो दर्जन से अधिक बार इसके प्रतिनिधि विधायक रहे और एक बार प्रोटेम स्पीकर की भी भूमिका निभाई. इसी प्रकार असम में ग़ुलाम उस्मानी के यूनाइटेड माइनॉरिटी फ्रंट और मौलाना बदरुद्दीन अजमल क़ासमी के ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने अलग-अलग समय में एक-एक सदस्य लोकसभा को दिए. 20 अक्टूबर, 2005 को बनी आईडीयूएफ के 10 सदस्य पहली बार राज्य विधानसभा में पहुंचे. इसी प्रकार 2011 के विधानसभा चुनाव में इसके 18 प्रतिनिधि निर्वाचित हुए और इसे प्रमुख विरोधी दल बनने का गौरव प्राप्त हुआ.
यह है भारत में बड़ी उम्मीद से स्थापित की गईं मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों का प्रदर्शन. नगरपालिका, विधानसभा, विधान परिषद, लोकसभा और राज्यसभा में तो इनके सदस्य किसी न किसी संख्या में पहुंचे और कभी-कभी केंद्र एवं राज्य सरकारों में मंत्री भी बनाए गए, मगर उनके प्रदर्शन से ऐसा प्रतीत होता है कि वे दीगर राजनीतिक पार्टियों के मुस्लिम प्रतिनिधियों से क़तई भिन्न नहीं हैं. इन तमाम सदनों में इन पार्टियोंे के प्रतिनिधियों द्वारा बहुत कम या न के बराबर ऐसे मुद्दे उठाए गए, जिससे यह प्रतीत हो कि मामला मुसलमानों के राजनीतिक सशक्तिकरण की ओर बढ़ रहा है. इनमें विज़न की कमी है, मुद्दे एवं एजेंडे नदारद हैं और सक्रियता भी नगण्य है. इसलिए ऐसे में मुसलमानों को अपनी राजनीतिक पार्टियों की गिनती बढ़ाने की बजाय राजनीतिक फोरम बनाने की आवश्यकता है, जो उनकी राजनीतिक रणनीति तैयार कर सके, मुद्दे एवं एजेंडे सुनिश्‍चित कर सके, आम राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों से संवाद करते हुए चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों के चयन में उन्हें दिशानिर्देश दे सके, मुस्लिम वोटों का विभाजन रोक सके, चुनावों में उन्हें सफल बनाने में सहयोग कर सके और फिर चुनाव बाद उनके राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए उनकी सरपरस्ती कर सके. प्रश्‍न यह है कि क्या मुस्लिम समुदाय तैयार है इस तरह का फोरम बनाने के लिए? वयोवृद्ध मुस्लिम नेता सैयद शहाबुद्दीन एवं ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डॉक्टर मंजूर आलम का कहना है कि ऐसा बिल्कुल संभव है और आवश्यक भी.
 साभार: चौथी दुनिया

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