समान नागरिक संहिता अंग्रेजी Uniform Civil Code, यूनिफॉर्म सिविल कोड; UCC एक सामाजिक मामलों से संबंधित कानून होता है
S. A. Betab |
1930 में जवाहरलाल नेहरू, हालांकि उन्होंने एक समान नागरिक संहिता का समर्थन किया, उन्हें वरिष्ठ नेताओं द्वारा विरोध का सामना करना पड़ा। और पंडित जवाहरलाल नेहरू समान नागरिक संहिता लागू नहीं कर पाए।
फिलहाल समान नागरिक संहिता भारत में नागरिकों के लिए एक समान कानून को बनाने और लागू करने का एक प्रस्ताव है जो सभी नागरिकों पर उनके धर्म, लिंग और यौन अभिरुचि की परवाह किए बिना समान रूप से लागू होगा। वर्तमान में, विभिन्न समुदायों के व्यक्तिगत कानून उनके धार्मिक ग्रंथों द्वारा शासित होते हैं। पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करना भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा किए गए विवादास्पद वादों में से एक है। यह भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और शरिया और धार्मिक रीति-रिवाजों की रक्षा में भारत के राजनीतिक वामपंथी, मुस्लिम समूहों और अन्य रूढ़िवादी धार्मिक समूहों और संप्रदायों द्वारा विवादित बना हुआ है। अभी व्यक्तिगत कानून सार्वजनिक कानून से अलग-अलग हैं। इस बीच, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25-28 भारतीय नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है और धार्मिक समूहों को अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन करने की अनुमति देता है, संविधान का अनुच्छेद 44 भारतीय राज्य से अपेक्षा करता है कि वह राष्ट्रीय नीतियां बनाते समय सभी भारतीय नागरिकों के लिए राज्य के नीति निर्देशक तत्व और समान कानून को लागू करे।
समान नागरिक संहिता व्यक्तिगत कानून पहली बार ब्रिटिश राज के दौरान मुख्य रूप से हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के लिए बनाए गए थे। अंग्रेजों को समुदाय के नेताओं के विरोध का डर था और इसलिए वे इस घरेलू क्षेत्र में आगे हस्तक्षेप करने से बचते थे। भारतीय राज्य गोवा जो उस समय पुर्तगाल के औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत होने के कारण ब्रिटिश भारत से अलग था, वहाँ एक समान पारिवारिक कानून को बरकरार रखा गया जिसे गोवा नागरिक संहिता के रूप में जाना जाता था और इस प्रकार यह आज तक समान नागरिक संहिता वाला भारत का एकमात्र राज्य है। भारत की आजादी के बाद, हिंदू कोड बिल पेश किया गया, जिसने बौद्ध, हिंदू, जैन और सिख जैसे भारतीय धर्मों के विभिन्न संप्रदायों में बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया व उनमें सुधार भी किया, लेकिन इसने ईसाइयों, यहूदियों, मुसलमानों और पारसियों को छूट दी, जिन्हें हिंदुओं से अलग समुदायों के रूप में पहचाना गया।
प्रक्रिया की शुरुआत 1882 के हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ। हालाँकि समान नागरिकता कानून उस वक्त कमजोर पड़ने लगा, जब तथाकथित सेक्यूलरों ने मुस्लिम तलाक और विवाह कानून को लागू कर दिया। 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई।
1993 में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। इस कानून के कारण धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी हो गई। वहीं, कुछ मुसलमानों ने बदलाव का विरोध किया और दावा किया कि इससे देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी।
एक शंका यह भी है कि सरकार यूसीसी की आड़ में हिंदू सामाजिक धार्मिक कानूनों को इतर धर्मियों पर थोप सकती है। यह इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि खुद हिंदुओं को भी यूसीसी के लिए अपने कुछ नियमों-परंपराओं को ताक पर रखना पड़ सकता है। इसमें प्रमुख हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) है।
एआईएमआईम नेता असदउद्दीन ओवैसी ने इसी मुद्दे पर पीएम मोदी को घेरते हुए सवाल किया है कि क्या वो एचयूएफ को खत्म करेंगे? बताया जाता है कि देश में इसके जरिए हिंदू परिवार हर साल 3 हजार करोड़ रु. आयकर अधिनियम के तहत एचयूएफ को एक अलग ईकाई माना जाता है। अब बेटियां भी परिवार की संपत्ति में हिस्सा हैं और इसके तहत उन्हें टैक्स देनदारियों में कुछ छूट मिलती है।
इसका अर्थ यह है कि कुछ चुनिंदा कानूनों को छोड़कर बाकी में सभी धर्मों की अपनी-अपनी प्रथा परंपराएं कायम रहेंगी। अब असली सवाल यह है कि मोदी सरकार यह मुद्दा अभी ही क्यों उठा रही है? सरकार चाहती तो मोदी 2 के पहले या दूसरे साल में ही इसे ला सकती थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया गया।हालांकि इस मुद्दे पर बहस की शुरुआत तो पिछले साल दिसंबर में भाजपा सांसद किरोडीलाल मीणा द्वारा राज्यसभा में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर लाए गए प्राइवेट बिल के साथ ही हो गई थी। इस बिल को भाजपा का समर्थन था। भाजपा के लिए यह मुद्दा जनसंघ के जमाने से है। भाजपा बनने के बाद 90 के दशक में पार्टी जिन मुद्दों को लेकर बढ़ती रही है, उनमें कश्मीर में धारा 370 हटाना, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और देश में समान नागरिक संहिता इनमें से दो तो पूरे हो चुके हैं, केवल यूसीसी का मुद्दा बचा है। उधर विधि आयोग ने भी 2018 में यूसीसी पर राय मांगकर सनसनी फैला दी थी, लेकिन कुछ वर्गों के विरोध के बाद उसने खुद यह पहल ये कहकर वापस ले ली थी कि फिलहाल देश में इसकी जरूरत नहीं है।
यूसीसी देश की जरूरत?
लेकिन 2024 के चुनाव के पहले मोदी सरकार और विधि आयोग को लगने लगा है कि अब यूसीसी देश की जरूरत है। इसके पीछे ‘अनेकता में एकता’ का भाव भी है, लेकिन दूसरे तरीके से। कुछ लोगों का मानना है कि समान नागरिक संहिता देश के धर्म निरपेक्ष चरित्र को मजबूत करेगी। शायद इसी मकसद से प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘एक देश और दो कानून’ व्यवस्था नहीं चल सकती। पार्टी कभी ऐसा ही नारा ‘एक देश, दो विधान, दो प्रधान और दो निशान’ वाला नारा जम्मू कश्मीर के बारे में दिया करती थी। लेकिन यूसीसी का मुद्दा वोटों की भट्टी में ‘राम मंदिर’ की तरह पक सकेगा?
क्या वोटर और खासकर बहुसंख्यक समाज यूसीसी मुद्दे से उतना ही भावनात्मक जुड़ाव महसूस कर सकेगा, जैसा राम मंदिर के मामले में हुआ है? क्योंकि यह मुद्दा विभिन्न सामाजिक धार्मिक रीति-रिवाजों के एक समान संहिताकरण से जुड़ा है और कानूनी ज्यादा है। इसे वोटों की गोलबंदी में बदलना आसान नहीं है। यूसीसी को लेकर मतदाताओं का ध्रुवीकरण तो होगा, लेकिन कितना, यह कहना बहुत मुश्किल है और इस मुद्दे के आगे बाकी के जमीनी मुद्दे और जवाबदेहियां दफन हो जाएंगी, यह मान लेना राजनीतिक भोलापन होगा।
वोटों के ध्रुवीकरण के लिए जरूरी है कि पहले वो ड्राफ्ट तो सामने आए, जिससे प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का स्वरूप स्पष्ट हो सके और लोग इसके पक्ष-विपक्ष में राय बना सकें। यह ड्राफ्ट कब तक आएगा, अभी स्पष्ट नहीं है। अलबत्ता यूसीसी को सबसे पहले लागू करने का वादा करने वाले उत्तराखंड राज्य में 15 बिंदुओं पर आधारित यूसीसी ड्राफ्ट तैयार होने की खबर है, लेकिन अभी वह सार्वजनिक नहीं हुआ है।
हो सकता है कि विधि आयोग उसे ही बेसिक ड्राफ्ट मान ले। लेकिन अगर आयोग को साढ़े आठ लाख से ज्यादा सुझाव मिले हैं तो उनके अध्ययन और उन्हें ड्राफ्ट में शामिल करने (बशर्ते ऐसा हो) के लिए काफी समय लगेगा। यह काम अगले लोकसभा चुनाव के पहले पूरा हो जाएगा, इसकी संभावना कम है। अगर जल्दबाजी में कोई ड्राफ्ट लाया भी गया तो उस पर बवाल मचना तय है। उसी हल्ले में चुनाव भी हो जाएंगे। 2024 के चुनाव में अपनी नैया पार करने के लिए भाजपा बहुत सोच समझकर इस मुद्दे को लाई है
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