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पति की जानबूझकर घरेलू कामों में अयोग्यता : बदलते रिश्तों का संकट"साझेदारी और बराबरी से ही टिकेगा आधुनिक विवाह"

विवाह केवल साथ रहने का नाम नहीं, बराबरी की साझेदारी है। घरेलू काम भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितनी नौकरी या व्यवसाय। जानबूझकर अयोग्यता दिखाना रिश्तों को खोखला कर देता है। बराबरी से जिम्मेदारी बाँटना ही खुशहाल परिवार की नींव है। आधुनिक विवाह तभी टिकाऊ होगा जब साझेदारी और सम्मान दोनों हों।


✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ


आधुनिक जीवनशैली ने जहाँ रिश्तों में नए अवसर खोले हैं, वहीं कई नई चुनौतियाँ भी खड़ी कर दी हैं। शिक्षा, रोजगार और तकनीक ने महिलाओं को पहले से अधिक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाया है। आज की महिला घर के दायरे से निकलकर नौकरी, व्यवसाय और प्रशासनिक जिम्मेदारियों तक सक्रिय रूप से पहुँच रही है। लेकिन विडंबना यह है कि घर की दहलीज़ के भीतर उसकी स्थिति उतनी नहीं बदली जितनी बदलनी चाहिए थी। अधिकांश परिवारों में अभी भी घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी लगभग पूरी तरह से महिलाओं पर ही डाल दी जाती है।

इस समस्या का एक नया और चिंताजनक रूप सामने आया है – पति द्वारा घरेलू कामों में जानबूझकर अयोग्यता दिखाना। इसे पश्चिमी समाज में वेपनाइज्ड इनकंपिटेंस कहा जाता है, जिसका सीधा अर्थ है कि पति जानबूझकर घरेलू काम बिगाड़कर यह जताता है कि वह इन कार्यों में सक्षम ही नहीं है। नतीजतन पत्नी को ही दोबारा सब कुछ करना पड़ता है और धीरे-धीरे घर का पूरा बोझ उसी के कंधों पर आ जाता है।

कल्पना कीजिए कि पत्नी कहती है कि रसोई में सब्ज़ी बनाओ। पति नमक इतना डाल देगा कि खाना खाने लायक ही न रहे। या फिर कपड़े धोते समय वह रंगीन और सफेद कपड़े एक साथ डाल देगा ताकि वे खराब हो जाएँ। बच्चे को होमवर्क कराने की जिम्मेदारी मिले तो वह आधे मन से बैठकर बच्चा और उलझा दे। ऐसे मामलों में वह बाद में सहजता से कह देता है – "देखो, मुझसे नहीं होता, तुम ही कर लो।" इस तरह बार-बार की गई ऐसी घटनाएँ पत्नी को मजबूर कर देती हैं कि वह सब कुछ स्वयं संभाले।

यह प्रवृत्ति केवल आलस्य का रूप नहीं है, बल्कि मानसिकता की गहराई में छिपा हुआ लैंगिक भेदभाव है। समाज ने सदियों से यह धारणा बना दी है कि घरेलू काम महिलाओं का दायित्व है और पुरुष केवल बाहर की जिम्मेदारियों तक सीमित हैं। लेकिन आज के समय में जब महिलाएँ बाहर भी बराबर की जिम्मेदारी उठा रही हैं, तब यह तर्क न तो न्यायसंगत है और न ही स्वीकार्य।

कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान यह स्थिति और स्पष्ट होकर सामने आई। जब दफ्तर घरों में सिमट गए, बच्चे पूरे समय घर में रहने लगे और बाहर से सहायक मिलना बंद हो गया, तब लाखों परिवारों में यह देखा गया कि महिलाओं पर काम का बोझ कई गुना बढ़ गया। वे दिनभर ऑनलाइन मीटिंग्स में भी थीं और साथ ही तीन वक्त का खाना बनाने, बच्चों को पढ़ाने, सफाई करने और बुज़ुर्गों की देखभाल करने की जिम्मेदारी भी निभा रही थीं। पति जहाँ तक संभव हुआ, इन जिम्मेदारियों से बचते रहे और बहाना यही रहा कि वे घर के कामों में उतने माहिर नहीं हैं। इस परिस्थिति ने कई रिश्तों में तनाव को जन्म दिया और कई परिवारों में तलाक और अलगाव की घटनाएँ बढ़ीं।

महिलाएँ अब पहले जैसी स्थिति में चुपचाप समझौता नहीं कर रही हैं। शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के कारण वे बराबरी की मांग कर रही हैं। उनके लिए विवाह अब केवल परंपरा निभाने का नाम नहीं है, बल्कि एक साझेदारी है। इस साझेदारी का अर्थ है कि दोनों साथी मिलकर घर की जिम्मेदारियाँ बाँटें। जब पति जानबूझकर अयोग्यता दिखाता है तो यह सीधे-सीधे पत्नी के आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर चोट करता है। कई बार यह स्थिति डिप्रेशन, चिंता और थकान का कारण बन जाती है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह प्रवृत्ति रिश्तों को नुकसान पहुँचाती है। रिश्ता तभी मजबूत होता है जब उसमें बराबरी और विश्वास का भाव हो। यदि एक पक्ष बार-बार जिम्मेदारी से भागे और दूसरा पक्ष मजबूरी में सब कुछ ढोता रहे तो धीरे-धीरे नाराज़गी, कड़वाहट और दूरी बढ़ जाती है। पत्नी को लगता है कि उसकी मेहनत को महत्व नहीं दिया जा रहा और पति को लगता है कि वह अपनी सुविधा से बच निकला है। यह असंतुलन लंबे समय तक नहीं चल सकता।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस विषय पर शोध हुए हैं। अमेरिका, कनाडा और यूरोप के कई समाजशास्त्रीय अध्ययनों में पाया गया है कि घरेलू कार्यों का असमान वितरण तलाक का एक बड़ा कारण है। भारत में भी यही प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। बदलते शहरी जीवन, दोहरे रोजगार और छोटे परिवारों की पृष्ठभूमि में महिलाएँ अधिक मुखर हो रही हैं और बराबरी की मांग खुलकर रख रही हैं।

इस समस्या का समाधान केवल कानून या सामाजिक दबाव से नहीं निकलेगा, बल्कि यह पति-पत्नी के आपसी संवाद और समझदारी से ही संभव है। पुरुषों को यह समझना होगा कि घरेलू कार्य केवल साधारण काम नहीं हैं, बल्कि वे परिवार की नींव को मजबूत रखते हैं। यदि रसोई का काम, बच्चों की पढ़ाई या घर की सफाई समय पर और ठीक से न हो तो घर का वातावरण बिगड़ जाता है और तनाव बढ़ता है। इसलिए इन्हें हल्के में लेना या केवल महिला पर थोपना उचित नहीं।

इसी तरह महिलाओं को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे बिना कहे हर जिम्मेदारी अपने ऊपर न लें। कई बार महिलाएँ यह सोचकर चुप रह जाती हैं कि "वह नहीं करेगा तो मुझे ही करना होगा।" धीरे-धीरे यह पैटर्न स्थायी हो जाता है और पति जिम्मेदारी से बचने का आदी बन जाता है। इसलिए आवश्यक है कि शुरुआत से ही दोनों के बीच काम बाँटने की आदत विकसित हो।

शिक्षा प्रणाली और सामाजिक अभियानों में भी यह संदेश देना होगा कि घरेलू कार्य किसी एक लिंग की जिम्मेदारी नहीं हैं। बच्चों को बचपन से ही यह सिखाना होगा कि लड़का और लड़की दोनों बर्तन धो सकते हैं, खाना बना सकते हैं और घर का हर काम कर सकते हैं। जब यह सोच बचपन से पनपेगी तभी आने वाली पीढ़ी में असमानता घटेगी।

समाज को यह भी स्वीकार करना होगा कि घरेलू कार्यों की भी आर्थिक और सामाजिक कीमत है। यदि कोई महिला या पुरुष दिनभर घर के काम कर रहा है तो वह भी उतनी ही मेहनत कर रहा है जितना कोई नौकरी करने वाला। इसे केवल "महिला का काम" कहकर कमतर आँकना अन्यायपूर्ण है।

पति द्वारा घरेलू कार्यों में अयोग्यता दिखाना केवल व्यक्तिगत रिश्तों को नहीं तोड़ता, बल्कि यह समाज में असमानता और अन्याय को भी गहरा करता है। यदि आधुनिक विवाह को टिकाऊ और मजबूत बनाना है तो यह मानसिकता बदलनी ही होगी। साझेदारी और बराबरी ही आज के समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

अंततः यही कहा जा सकता है कि विवाह केवल साथ रहने का अनुबंध नहीं है। यह एक ऐसा बंधन है जिसमें दोनों साथी मिलकर एक-दूसरे की खुशियों और कठिनाइयों को साझा करते हैं। यदि पति जिम्मेदारियों से बचने के लिए अयोग्यता का बहाना बनाएगा तो यह रिश्ते को खोखला कर देगा। इसके विपरीत यदि वह बराबरी से जिम्मेदारी उठाएगा तो न केवल रिश्ते में विश्वास और प्रेम बढ़ेगा, बल्कि परिवार भी खुशहाल और सशक्त बनेगा।

इसलिए अब समय आ गया है कि समाज इस प्रवृत्ति को सामान्य मानने के बजाय इसे चुनौती दे। महिलाएँ बराबरी की हकदार हैं और पुरुषों को बराबरी से जिम्मेदारी निभानी होगी। तभी आधुनिक विवाह वास्तव में सफल और टिकाऊ बन पाएगा।

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