अमेरिका ने तीसरी बार भारत को इस सूची में रखा है. इसके पहले अक्टूबर 2018 तक भारत अमेरिका की ऐसी करेंसी निगरानी सूची में था, लेकिन मई 2019 में भारत इस श्रेणी से बाहर था । अमेरिका ने भारत के प्रति सख्त रुख दिखाते हुए इसे भी चीन, ताइवान जैसे दस देशों के साथ 'करेंसी मैनिपुलेटर्स' यानी मुद्रा में हेरफेर करने वाले देशों की 'निगरानी सूची' में डाल दिया है।अमेरिका ने तीसरी बार भारत को इस सूची में रखा है. इसके पहले अक्टूबर 2018 तक भारत अमेरिका की ऐसी करेंसी निगरानी सूची में था, लेकिन मई 2019 में आयी नयी सूची में भारत को इस सूची से हटा दिया गया था।अमेरिका ऐसे देश को इस श्रेणी में रखता है, जो उसके मुताबिक करेंसी का अनुचित दस्तूर अपनाता है, डॉलर के मुकाबले अपनी करेंसी को जानबूझकर डीवैल्यूएट यानी अवमूल्यित करता है. कथित रूप से ऐसा देश मुद्रा में कृत्रिम हेरफेर कर अपने कारोबार के लिए अनुचित फायदा उठाता है।असल में यदि कोई देश अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर दे तो उसके देश के निर्यात की लागत कम हो जाती है, सस्ता होने से निर्यात की मात्रा बढ़ जाती है और किसी देश के साथ उसके व्यापारिक संतुलन में बदलाव आ जाता है।अमेरिका ने इसके लिए तीन तरह के पैमाने तय किये हैं: 1. किसी देश का अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार में एक साल के दौरान कम से कम 20 अरब डॉलर का ट्रेड सरप्लस हो जाए यानी अमेरिका में उस देश का निर्यात उसके अमेरिका से आयात के मुकाबले ज्यादा हो. 2. एक साल के दौरान किसी देश का करेंट एकाउंट सरप्लस उसके सकल घरेलू उत्पाद के कम से कम 2 फीसदी तक हो जाए. 3. किसी देश के द्वारा एक साल के भीतर विदेशी मुद्रा की खरीद उसके जीडीपी का कम से कम 2 फीसदी हो जाए।इस सूची में शामिल होने से तत्काल भारत को कोई बड़ा नुकसान नहीं होने वाला है, लेकिन इससे वैश्विक बाजार में भारत की छवि को थोड़ा नुकसान हो सकता है. इसके दबाव में हो सकता है कि अब रिजर्व बैंक डॉलर की खरीद कम कर दे. डॉलर की खरीद कम हुई तो रुपये में और मजबूती आ सकती है. इससे हमारा निर्यात महंगा हो सकता है और कई देशों के साथ व्यापार घाटा बढ़ सकता है।
अमेरिका ने खासकर इस बात पर सवाल उठाये हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक डॉलर की जमकर खरीद कर रहा है. रिजर्व बैंक द्वारा डॉलर की ज्यादा खरीद करने से हमारे देश के विदेशी मुद्रा भंडार में इस वित्त वर्ष में ही करीब 100 अरब डॉलर की बढ़त हुई है. देश का विदेशी मुद्रा भंडार इस साल अप्रैल के 475.6 अरब डॉलर के मुकाबले अब 579.34 अरब डॉलर तक पहुंच गया है।अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार में पिछले कई साल से पलड़ा भारत के पक्ष में झुका हुआ है. जून 2020 तक की चार तिमाहियों में अमेरिका के साथ भारत का ट्रेड सरप्लस करीब 22 अरब डॉलर तक पहुंच गया.
इस मामले में भारत का तर्क यह है कि दुनिया के केंद्रीय बैंकों द्वारा जिस तरह से पूंजी का प्रवाह किया जा रहा है उसकी वजह से मुद्रा के प्रबंधन के लिए उसके लिए ऐसा हस्तक्षेप जरूरी था. रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने पिछले साल कहा था कि अमेरिका को किसी देश को 'मैनिपुलेटर' का तमगा देने की जगह उसके मुद्रा भंडार की जरूरत के बारे में बेहतर समझ रखनी चाहिए.
उन्होंने तो यहां तक संकेत दे दिया था कि अमेरिका के ऐसे कदमों से भारत रिजर्व करेंसी के रूप में डॉलर को अपनाने से दूर हो सकता है. जानकारों का मानना है कि अब रिजर्व बैंक को डॉलर की खरीद से वास्तव में बचना चाहिए क्योंकि 500 अरब डॉलर का मुद्रा भंडार ही हमारी एक साल की आयात जरूरतों के लिए काफी है.
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