उत्तर पूर्वी दिल्ली के विजय मोहल्ला स्थित आयशा मस्जिद के निकट मुस्लिम वेलफेयर आर्गेनाइजेशन द्वारा एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया।जिसमें अट्ठारह सौ सत्तावन के जंगे आजादी के शहीदों को याद किया गया । और उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। इस मौके पर संस्था के अध्यक्ष सरताज अहमद मसूदी ने आयोजको के लिए भोजन की व्यवस्था भी की थी। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान ने इस अवसर पर अपने ख्यालात का इजहार करते हुए कहा कि मुस्लिम समाज को आगे बढ़ने के लिए तालीम को अपनाना बेहद जरूरी है । उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय की जो समस्याएं हैं उन्हें दूर करने के लिए समाज के शिक्षित वर्ग को आगे आना चाहिए। अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव सन 1857 में मेरठ में रखी गई, जो कि बाद में पूरे देश में आग की तरह फैल गई. इसी ने अंग्रेजों के पैर भारत से उखाड़ने की भूमिका तैयार की और आखिर में 1947 में भारत को आजादी मिली. इस जंग में लाखों ज्ञात और अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया. आइए जानते हैं कि मेरठ से आजादी की मशाल जलाने वाले मंगल पांडे के बारे में मंगल पाण्डेय का जन्म भारत में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा नामक गांव में 19 जुलाई 1827 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. हांलाकि कुछ इतिहासकार इनका जन्म-स्थान फैज़ाबाद के गांव सुरहुरपुर को मानते हैं. इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे था. मंगल पाण्डेय सन् 1849 में 22 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हो गए. मंगल पाण्डेय एक ऐसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने 1857 में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वो ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल इंफेन्ट्री के सिपाही थे. तत्कालीन अंगरेजी शासन ने उन्हें बागी करार दिया जबकि आम हिंदुस्तानी उन्हें आजादी की लड़ाई के नायक के रूप में सम्मान देता है. भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में सन् 1984 में एक डाक टिकट जारी किया गया.विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ. सिपाहियों को पैटऱ्न 1853 एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी और पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी. नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी. नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिए कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था. कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी. सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है.
उत्तर पूर्वी दिल्ली के विजय मोहल्ला स्थित आयशा मस्जिद के निकट मुस्लिम वेलफेयर आर्गेनाइजेशन द्वारा एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया।जिसमें अट्ठारह सौ सत्तावन के जंगे आजादी के शहीदों को याद किया गया । और उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। इस मौके पर संस्था के अध्यक्ष सरताज अहमद मसूदी ने आयोजको के लिए भोजन की व्यवस्था भी की थी। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान ने इस अवसर पर अपने ख्यालात का इजहार करते हुए कहा कि मुस्लिम समाज को आगे बढ़ने के लिए तालीम को अपनाना बेहद जरूरी है । उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय की जो समस्याएं हैं उन्हें दूर करने के लिए समाज के शिक्षित वर्ग को आगे आना चाहिए। अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नींव सन 1857 में मेरठ में रखी गई, जो कि बाद में पूरे देश में आग की तरह फैल गई. इसी ने अंग्रेजों के पैर भारत से उखाड़ने की भूमिका तैयार की और आखिर में 1947 में भारत को आजादी मिली. इस जंग में लाखों ज्ञात और अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना बलिदान दिया. आइए जानते हैं कि मेरठ से आजादी की मशाल जलाने वाले मंगल पांडे के बारे में मंगल पाण्डेय का जन्म भारत में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा नामक गांव में 19 जुलाई 1827 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. हांलाकि कुछ इतिहासकार इनका जन्म-स्थान फैज़ाबाद के गांव सुरहुरपुर को मानते हैं. इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे था. मंगल पाण्डेय सन् 1849 में 22 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हो गए. मंगल पाण्डेय एक ऐसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने 1857 में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वो ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल इंफेन्ट्री के सिपाही थे. तत्कालीन अंगरेजी शासन ने उन्हें बागी करार दिया जबकि आम हिंदुस्तानी उन्हें आजादी की लड़ाई के नायक के रूप में सम्मान देता है. भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में सन् 1984 में एक डाक टिकट जारी किया गया.विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ. सिपाहियों को पैटऱ्न 1853 एनफ़ील्ड बंदूक दी गयीं जो कि 0.577 कैलीबर की बंदूक थी और पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लायी जा रही ब्राउन बैस के मुकाबले में शक्तिशाली और अचूक थी. नयी बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकशन कैप) का प्रयोग किया गया था परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी. नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिए कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था. कारतूस का बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी. सिपाहियों के बीच अफ़वाह फ़ैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है.
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