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आजादी के मतवाले (54) 1857 के स्वतंत्रता सेनानी


 आजादी के मतवाले (54 )

1857 के स्वतंत्रता सेनानी 

बहादुर शाह (अबू ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद अहमद शहंशाह अकबर शाह)


 जनम 1775. अंतिम मुगल सम्राट माता का नाम बेग लाल बाई । फारसी के दिग्गज  ज्ञाता उर्दू के कवि उनका तखल्लुस ज़फर था। हिंदू मुस्लिम एकता के नेता अपने समय में उन्होंने" फूलवालों की सैर" का मेला शुरू किया। इंकलाबी मुहिम के बीच उन्होंने इन उन मुहिमो की बागडोर अपने अपने हाथों में ली और उसका नेतृत्व किया। 14 मई 1857(अट्ठारह सौ सत्तावन) को राष्ट्रीय प्रशासन की बुनियाद डाली । उन्होंने अपने फरमान में जागीरदारों और धनी लोगों से अपील की कि वे अंग्रेजों के खिलाफ इस मुहिम में सम्मिलित हो जाए। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई 14 सितंबर 1857 तक जारी रही। 84 वर्षीय बहादुर शाह जफरअंग्रेजो के मुकाबले के लिए लाल किला दिल्ली से बाहर आकर लडे। अंग्रेज अपने इस मंसूबे में सफल हुए तब बादशाह बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली । 

20 सितंबर 1857 को अंग्रेज किले पर अधिकार करने के बाद   हुमायूं के मकबरे की तरफ चले । अंग्रेजी फौज के कमांडर Hudson ने बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम को लाल किले में कैद कर लिया military कमीशन के समक्ष उनका मुकदमा पेश हुआ। उन्हें विद्रोही घोषित किया । जिसके उपरांत बहादुर शाह को दिसंबर में रंगून भेज दिया गया । कारावास की अवधि में उनका देहांत 7 नवंबर 1862 में रंगून में हो गया ।बहादुर शाह जफर सिर्फ एक देशभक्त मुगल बादशाह ही नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर कवि भी थे। उन्होंने बहुत सी मशहूर उर्दू कविताएं लिखीं, जिनमें से काफी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के समय मची उथल-पुथल के दौरान खो गई या नष्ट हो गई। उनके द्वारा उर्दू में लिखी गई पंक्तियां भी काफी मशहूर हैं-


देश से बाहर रंगून में भी उनकी उर्दू कविताओं का जलवा जारी रहा। वहां उन्हें हर वक्त हिंदुस्तान की फिक्र रही। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वह अपने जीवन की अंतिम सांस हिंदुस्तान में ही लें और वहीं उन्हें दफनाया जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।


लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,

किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।


बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,

किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।


कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,

इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।


एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,

कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।


उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,

दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।


दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,

फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।


कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥


बहादुर शाह जफर जैसे कम ही शासक होते हैं जो अपने देश को महबूबा की तरह मोहब्बत करते हैं और कू-ए-यार (प्यार की गली) में जगह न मिल पाने की कसक के साथ परदेस में दम तोड़ देते हैं। यही बुनियादी फ़र्क़ था मूलभूत हिंदुस्तानी विचारधारा के साथ जो अपने देश को अपनी माँ मानते है।


बादशाह जफर ने जब रंगून में कारावास के दौरान अपनी आखिरी सांस ली तो शायद उनके लबों पर अपनी ही मशहूर गजल का यह शेर जरूर रहा होगा- "कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।"


भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर उर्दू के एक बड़े शायर के रूप में भी विख्यात हैं। उनकी शायरी भावुक कवि की बजाय देशभक्ति के जोश से भरी रहती थी और यही कारण था कि उन्होंने अंग्रेज शासकों को तख्ते-लंदन तक हिन्दुस्तान की शमशीर (तलवार) चलने की चेतावनी दी थी।


जनश्रुतियों के अनुसार प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब बादशाह जफर को गिरफ्तार किया गया तो उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने उन पर कटाक्ष करते हुए यह शेर कहा- "दम में दम नहीं, अब खैर मांगो जान की ए जफर अब म्यान हो चुकी है, शमशीर (तलवार) हिन्दुस्तान की..!!" इस पर जफर ने करारा जवाब देते हुए कहा था- "हिंदीओ में बू रहेगी जब तलक इमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग (तलवार) हिन्दुस्तान की..!!"


भारत में मुगलकाल के अंतिम बादशाह कहे जाने वाले जफर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिल्ली का बादशाह बनाया गया था। बादशाह बनते ही उन्होंने जो चंद आदेश दिए, उनमें से एक था गोहत्या पर रोक लगाना। इस आदेश से पता चलता है कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के कितने बड़े पक्षधर थे।


गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्राध्यापक डॉ॰ शैलनाथ चतुर्वेदी के अनुसार 1857 के समय बहादुर शाह जफर एक ऐसी बड़ी हस्ती थे, जिनका बादशाह के तौर पर ही नहीं एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में भी सभी सम्मान करते थे। इसीलिए बेहद स्वाभाविक था कि मेरठ से विद्रोह कर जो सैनिक दिल्ली पहुंचे उन्होंने सबसे पहले बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह बनाया।


चतुर्वेदी ने बातचीत में कहा कि जफर को बादशाह बनाना सांकेतिक रूप से ब्रिटिश शासकों को एक संदेश था। इसके तहत भारतीय सैनिक यह संदेश देना चाहते थे कि भारत के केन्द्र दिल्ली में विदेशी नहीं बल्कि भारतीय शासक की सत्ता चलेगी। बादशाह बनने के बाद बहादुर शाह जफर ने गोहत्या पर पाबंदी का जो आदेश दिया था वह कोई नया आदेश नहीं था। बल्कि अकबर ने अपने शासनकाल में इसी तरह का आदेश दे रखा था। जफर ने महज इस आदेश का पालन फिर से करवाना शुरू कर दिया था।


देशप्रेम के साथ-साथ जफर के व्यक्तित्व का एक अन्य पहलू शायरी थी। उन्होंने न केवल गालिब, दाग, मोमिन और जौक जैसे उर्दू के बड़े शायरों को तमाम तरह से प्रोत्साहन दिया, बल्कि वह स्वयं एक अच्छे शायर थे। साहित्यिक समीक्षकों के अनुसार जफर के समय में जहां मुगलकालीन सत्ता चरमरा रही थी वहीं उर्दू साहित्य खासकर उर्दू शायरी अपनी बुलंदियों पर थी। जफर की मौत के बाद उनकी शायरी "कुल्लियात ए जफर" के नाम से संकलित की गयी।


प्रस्तुति एस ए बेताब संपादक( बेताब समाचार एक्सप्रेस) हिंदी मासिक पत्रिका यूट्यूब चैनल

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